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सिंवई 

सिंवई का स्वाद आजकल मन में आने लगा है,

की कहीं-से तो,

की कैसे भी तो,

ज़रा-सी मिल जाए,

कोशिश करे पर बन ही पाए,

चख लें जो तो,

मन बदल सके तबियत थोड़ी,

थोड़ी राहत मिले कराहने को होती रूह को भी,

पर कहाँ?

अजी कहाँ?

मीठी सिंवई तो नहीं बनती,

मिलती बस इलायची है,

मुँह कड़वा ही करे पर उतारू है,

एक ही तो सुकूं बचा था,

मुस्कुराते हर्फ़ों का ज़िन्दगी में,

की फ़िकरों की फ़िक्र न होती थी,

न तितली मन की रोती थी,

अब वो भी नहीं,

अब इतना भी नहीं,

कितना मन होता है कि कुछ लिख लूँ,

हर शाम मन यही करता है,

बस इलायची ही मिलती है लेकिन,

सिंवई खाए बरस बीते,

स्वाद की याद तो भले आती है,

मग़र सिंवई अब नहीं बन पाती है!

(ख़याल: स्वाद)

©निशा मिश्रा