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सिगरेट की डिबिया (Cigarette Box)

“एक अजीब-सा कायेदा खेलती है वो रोज़ाना,

फिकरों को हर रोज़ धुंए में उड़ाती है,

कहते कहते कुछ बिच में ही रुक जाती है,

कभी कोई नज़्म गुनगुनाती है,

कभी शायरी सुनाती है,

लिखा करती है कुछ चाय की चुस्की लेते हुए,

कभी चुपचाप बैठ जाती है,

एक अजीब-सा कायेदा है जो खलती है वो रोज़ाना,

हर हफ्ते एक सिगरेट की डिबिया मोल ले जाती है,

हर बार ही कोई नाम नया लिखती है उस पर,

खाली होती है जब डिबिया धुँआ होकर,

तो वो नाम, ख़याल उस नाम से जुड़ा कूड़े में देती है,

हंस कर फ़िर एक और नयी डिबिया मोल लेती है,

फेफड़ों में बेशक तार जमा हो उसके साहब…

मिजाज़ लेकिन दिल का सुलगा कर सुलझाना कोई उससे सीखे…

एक अजीब-सा कायेदा खेलती है वो रोज़ाना,

धुंए में हर चीज़ वो उडाती है,

नयी-सी हर रोज़ फ़िर हो जाती है,

मिजाज़-ऐ-तबियत बिगड़ जाए बेशक,

तस्सल्ली खुद को ऐब-ए-अदब से दिलाती है!

 

(ख़याल: सिगरेट की डिबिया)

©®निशा मिश्रा 🙂