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शहर (CITY)

“जैसे पूरा शहर घुमा हो उसके साथ,

की जहां भी जाओ लगता है ऐसा…..

जैसे… यहाँ बैठे थे उसके साथ,

जैसे… वहां चाय पि थी साथ,

जैसे… उस जगह हाथ थामा था,

जैसे… इस जगह बातें की थी सारी रात,

जैसे पूरा शहर घुमा हो उसके साथ,

की जहां भी जाओ लगता है ऐसा…..

जैसे… ट्रैफिक में फंसे थे उस फ्लाईओवर के नीचे,

जैसे… रेडियो पे वो गाना हम दोनों की पसंद का बजा था उस शाम,

जैसे… ऐसा लगा था की पहले क्यूँ नहीं मिले हम कभी,

जैसे… ऐसा लग रहा है क्या फ़िर दुबारा मिलेंगे कहीं?

जैसे… कमी सी लगती है हर जगह बिन कहे से ही,

जैसे पूरा शहर घुमा हो उसके साथ,

की जहां भी जाओ लगता है ऐसा…..

जैसे… जो मिला था वो माँगा कभी था ही नहीं,

जैसे… जो मिला वो सोचा था ही नहीं कभी,

जैसे… कहानियां कितनी मानो अधूरी रह गयी,

जैसे… मालुम है की ये कहानी अब यूँ ही ख़तम हो गयी,

जैसे पूरा शहर घुमा हो उसके साथ,

की जहां भी जाओ आजकल लगता है ऐसे…

खैर! छोड़िये!

कोई ख़ास बात नहीं है वैसे!”

 

 

(ख़याल: शहर)

© निशा मिश्रा

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HER.

On some days…

She’d stand still by the wall,

With a lit cigarette in her right hand,

While the left hand would rest on her waist,

A red dress,

Blood red lipstick,

And winged liner on her eyes,

She’d lean her head back by the wall, chinned up,

And then, she’d inhale one good drag…

With eyes looking far into the distance,

It would look so disturbing as much as it would look captivating,

Watching her smoke it all away…

As if, she’s mending herself while breaking inside,

As if, she’s answering whatever is being questioned,

As if, there is so much going on and she is flowing through all of it,

There was something about her,

That just wouldn’t be understandable yet so drawing,

She was a little too much to be contained in herself,

But that’s how she was,

Or probably…

Just probably…

That’s how she looked like,

And I guess that’s where she made a difference!!

 

 

(Thought: That girl with the cigarette)

©NISHA MISHRA

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longing

सखी! (Friend)

याद है पहली बार जब बात हुई थी हमारी?

और तुमने कहा था, “उफ़्फ़ कितनी साफ़ दिल की हो तुम! सहज बिल्कुल!”

फ़िर इक रोज़ यूँही किसी वजह हाथ झिड़क दिया था तुमने मेरा चिढ़ते हुए,

कहकर की, “उफ़्फ़! तंग आ गई हूँ मैं तुम्हारी नासमझ और ख़याली बातों से! बंद करो ये नाटक सब!”

काश पता होता उस दिन की अब नहीं मिलोगी कभी,

तो हाथ को तुम्हारे कुछ और कसकर पकड़ा होता,

दो घड़ी गले से भी लगाए रखा होता,

आवाज़ को कर लिया होता कहीं रिकार्ड,

दो निवाले जूठे तुम्हारे खा लिए होते,

कंगन माँग लिए होते मेटल के जो तुम पहनती थी शौक़ से,

मग़र पता न था कुछ तब,

कब, कैसे तुम चली गयी बिन बताए,

रात कभी नींद टूट जाया करती है न मेरी कभी,

तो,

तुम्हारी याद के नाम पर एक पन्ना है बस,

एक डायरी है दो साल पुरानी,

जिसमें कविता लिखी है वो जो तुम्हारे लिए लिखी थी मैंने,

तुमने हाथ जो झिड़का था मेरा इक रोज़,

तुम्हारे नाम लिखी उस कविता पर,

रोज़ फहरता है!”



(ख़याल: सखी)

© निशा मिश्रा

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‘वो ख़त सारे’ (All those letters)

“तुम्हारे नाम पर लिखे ख़त वो सारे मैं कहाँ भेजूं?
मेरे वो ख़त, जो तुम तक पहुंचे नहीं, बोलो उन्हें कहाँ भेजूं?
प्यार है या क्या है उन ख़तों में, क्या कहूँ?
तुम्हीं कहो, वो सारे ख़त मैं कहाँ भेजूं?
रट रट कर जिनके लफ्ज़ मुझे याद हो चुके,
कुछ संभालकर हैं रखे, ना जाने कितने खो चुके,
महीनों बैठकर तुम्हारे लिए जो लिखें हैं मैंने अब तलक,
तुम्हारे नाम पर लिखे ख़त वो सारे मैं कहाँ भेजूं?
कभी हंसी के साथ,
तो कभी लेकर सूजन भरी आँख,
लिखे जो ख़त तुम्हारे नाम,
लेकर कांपते हाथ,
जिनमें हिसाब नहीं कोई, की तुम कितना याद आए,
जिनमें कमी न रखी कहीं, या झूठ बिठाए,
तुम वापस आये, और फ़िर मुंह फेर चल पड़े हो,
लेकिन,
तुम्हारे नाम पर लिखे ख़त वो सारे मैं अब
कहाँ भेजूं?
आखिर, मैं कहाँ भेजूं?”

©निशा मिश्रा