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शहर (CITY)

“जैसे पूरा शहर घुमा हो उसके साथ,

की जहां भी जाओ लगता है ऐसा…..

जैसे… यहाँ बैठे थे उसके साथ,

जैसे… वहां चाय पि थी साथ,

जैसे… उस जगह हाथ थामा था,

जैसे… इस जगह बातें की थी सारी रात,

जैसे पूरा शहर घुमा हो उसके साथ,

की जहां भी जाओ लगता है ऐसा…..

जैसे… ट्रैफिक में फंसे थे उस फ्लाईओवर के नीचे,

जैसे… रेडियो पे वो गाना हम दोनों की पसंद का बजा था उस शाम,

जैसे… ऐसा लगा था की पहले क्यूँ नहीं मिले हम कभी,

जैसे… ऐसा लग रहा है क्या फ़िर दुबारा मिलेंगे कहीं?

जैसे… कमी सी लगती है हर जगह बिन कहे से ही,

जैसे पूरा शहर घुमा हो उसके साथ,

की जहां भी जाओ लगता है ऐसा…..

जैसे… जो मिला था वो माँगा कभी था ही नहीं,

जैसे… जो मिला वो सोचा था ही नहीं कभी,

जैसे… कहानियां कितनी मानो अधूरी रह गयी,

जैसे… मालुम है की ये कहानी अब यूँ ही ख़तम हो गयी,

जैसे पूरा शहर घुमा हो उसके साथ,

की जहां भी जाओ आजकल लगता है ऐसे…

खैर! छोड़िये!

कोई ख़ास बात नहीं है वैसे!”

 

 

(ख़याल: शहर)

© निशा मिश्रा