“जून की बारिश की एक ऐसी शाम बीती…
बिना ख़बर किए जब तुम आ गए ऑफ़िस मुझे लेने,
याद भी था तुमको,
की दफ़्तर में कुछ दिनों से नासाज़-से हालात हैं,
और दो दिन से खाने से भी बिगड़े तालुकात हैं,
देख कर तुमको दिल खिल उठा ऐसे,
रोते बच्चे के आगे गुदगुदा भालू रख दिया हो जैसे,
मन जो भर आया कुछ कहते में,
तो गाड़ी चलाते में भी हाथ तुमने थाम लिया,
“नहीं खाया ना आज भी कुछ पूरा दिन?
सुनना तो होता नहीं तुमको?”
तुम्हारे डाँटने के बावजूद कैसे हँस दी मैं,
और पिघल भी गए कैसे तुम,
बारिश के बाद की भीगी सड़कों को देख कर उछली तो,
कैसे खिलखिला उठे तुम मुझे देख कर,
पकोड़े भी खाए साथ स्वाद वाले फ़िर,
जून की बारिश की एक ऐसी शाम भी बीती,
बिना ख़बर किए जब तुम आ गए ऑफ़िस मुझे लेने!
©️निशा मिश्रा