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‘मुलाक़ात’ (Meeting)

“कभी आओगे न तुम मिलने मुझसे?

तो ख़ाली हाथ ही आना,

कुछ काग़ज़ मैं लाऊँगी,

एक पेन….

तुम अपनी शर्ट-पाकेट में रख लाना,

मिलकर ढेरों बातें करेंगे,

हंसेंगे और थोड़ा घूमेंगे,

तुम बताना…

क़िस्से मुझे अपने आफिस के,

मैं भी तुम्हें…

कहानियाँ कुछ सुनाऊँगी,

शाम को अलविदा लेने से पहले…

मत भूलना तुम…

अपना पेन मेरे हवाले करना,

मैं याद रखूँगी वो मुलाक़ात,

काग़ज़ में लिखकर फिर…

पते पर तुम्हारे?

सब कुरियर कराऊँगी,

सुनो?

मिलने आओगे न तुम मुझसे?”

(ख़याल: मुलाकात)

© निशा मिश्रा

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‘जून की बारिश’ (June’s Rain)

“जून की बारिश की एक ऐसी शाम बीती…

बिना ख़बर किए जब तुम आ गए ऑफ़िस मुझे लेने,

याद भी था तुमको,

की दफ़्तर में कुछ दिनों से नासाज़-से हालात हैं,

और दो दिन से खाने से भी बिगड़े तालुकात हैं,

देख कर तुमको दिल खिल उठा ऐसे,

रोते बच्चे के आगे गुदगुदा भालू रख दिया हो जैसे,

मन जो भर आया कुछ कहते में,

तो गाड़ी चलाते में भी हाथ तुमने थाम लिया,

“नहीं खाया ना आज भी कुछ पूरा दिन?

सुनना तो होता नहीं तुमको?”

तुम्हारे डाँटने के बावजूद कैसे हँस दी मैं,

और पिघल भी गए कैसे तुम,

बारिश के बाद की भीगी सड़कों को देख कर उछली तो,

कैसे खिलखिला उठे तुम मुझे देख कर,

पकोड़े भी खाए साथ स्वाद वाले फ़िर,

जून की बारिश की एक ऐसी शाम भी बीती,

बिना ख़बर किए जब तुम आ गए ऑफ़िस मुझे लेने!

©️निशा मिश्रा

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“कसम से” (I swear)

“ये जो रह रह कर याद आती है न तुम्हारी?
मन होता है कि मन ही मर जाए मेरा,
गुस्सा इस बात पर नहीं, की तुम्हें कद्र नहीं है,
अफसोस इस बात का की जानने के बावजूद तुमपर कोई फर्क नहीं है,
याद कम आते हो अब, पर आते तो हो ही,
याद तो आ जाते हो, मिलने आते हो नहीं,
जाने कितने लोगों के साथ गलत कर रही हूँ मैं भी अब,
पर क्या करूँ जो बेस्वाद हो चुका है सब?
पैसा है, नौकरी, घर भी, मुझमें मैं नहीं हूँ बस,
और जो थोड़ी बहुत हूँ भी, वो मैं हूँ नहीं,
सोचती हूँ,
एक रोज़ कभी तुम लौट आए, तो कैसा होगा तुमसे मिलना?
खटास होगी,
की तुम गए थे पिछली दफ़े मेरे रोकने के बावजूद, रोने के बावजूद,
मिर्च भी होगी,
के झगड़े भी उन बातों पर किये थे तुमने जो वजह बन सकते थे मुहब्बत की,
हंसोगे तुम शायद की कितनी पागल हूँ मैं जो पसंद कर बैठी तुम्हें या ऐसा कहा ही,
रो जाउंगी मैं या आंखों में मेरी कुछ न होगा, क्या मालूम?
सब कुछ तो छीन कर ले गए तुम मुझसे…..
खिलखिलाहट मेरी,
चहक, शैतानियां मेरी,
लज़्जतदार लिखने की आदत भी,
और मोरपंख जिससे लिखा करती थी,
इनके साथ जो मैं थी पहले, वो अब कहाँ हूँ?
बिमार पड़ता बदन, उलझा दिल-ओ-दिमाग और फीका भद्दा एक चहरा…
यही रह गई हूँ,
कहो किस काम की?
बिना मन के अपने, मैं किस काम की?
एक जैसी जो हंसी निकली थी हमारी,
हां वही सीधे गाल पर पड़ते गढ्ढे वाली,
वो भी तो नहीं रही अब,
अब रह गया है तो फीकापन एक जैसा,
आओगे कभी वो हंसी फ़िर याद दिलाने?
वापस आजाओ न?
रोते नहीं बनता, अच्छा नहीं लगता,
हाँ! कसम से!”

© निशा मिश्रा

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