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‘शायर’ (Poet)

“शहर सारा फिर सन्न-सा पड़ा है,

किसी सूने मकान जैसा,

इमारतें खोखली हैं सारी…

की रात के एक बजे हैं,

रास्ते हैं वीरान…

की घरों में लोग नींद ले रहे होंगे,

कल नया हफ़्ता कसने को तैयार जो होना है,

और कोई शायर कहीं…

सुर्ख़ आँखें किए बैठा हो शायद,

ये सोचकर बस की…

‘ये शहर जो सूना पड़ा है अभी सारा,

कल फिर इसमें शोर होगा,

भीड़ होगी,

मुझे घर जाना है मगर,

मैं मकान में इसके घुट रहा हुँ’!”

©️निशा मिश्रा

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‘मुलाक़ात’ (Meeting)

“कभी आओगे न तुम मिलने मुझसे?

तो ख़ाली हाथ ही आना,

कुछ काग़ज़ मैं लाऊँगी,

एक पेन….

तुम अपनी शर्ट-पाकेट में रख लाना,

मिलकर ढेरों बातें करेंगे,

हंसेंगे और थोड़ा घूमेंगे,

तुम बताना…

क़िस्से मुझे अपने आफिस के,

मैं भी तुम्हें…

कहानियाँ कुछ सुनाऊँगी,

शाम को अलविदा लेने से पहले…

मत भूलना तुम…

अपना पेन मेरे हवाले करना,

मैं याद रखूँगी वो मुलाक़ात,

काग़ज़ में लिखकर फिर…

पते पर तुम्हारे?

सब कुरियर कराऊँगी,

सुनो?

मिलने आओगे न तुम मुझसे?”

(ख़याल: मुलाकात)

© निशा मिश्रा

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‘जून की बारिश’ (June’s Rain)

“जून की बारिश की एक ऐसी शाम बीती…

बिना ख़बर किए जब तुम आ गए ऑफ़िस मुझे लेने,

याद भी था तुमको,

की दफ़्तर में कुछ दिनों से नासाज़-से हालात हैं,

और दो दिन से खाने से भी बिगड़े तालुकात हैं,

देख कर तुमको दिल खिल उठा ऐसे,

रोते बच्चे के आगे गुदगुदा भालू रख दिया हो जैसे,

मन जो भर आया कुछ कहते में,

तो गाड़ी चलाते में भी हाथ तुमने थाम लिया,

“नहीं खाया ना आज भी कुछ पूरा दिन?

सुनना तो होता नहीं तुमको?”

तुम्हारे डाँटने के बावजूद कैसे हँस दी मैं,

और पिघल भी गए कैसे तुम,

बारिश के बाद की भीगी सड़कों को देख कर उछली तो,

कैसे खिलखिला उठे तुम मुझे देख कर,

पकोड़े भी खाए साथ स्वाद वाले फ़िर,

जून की बारिश की एक ऐसी शाम भी बीती,

बिना ख़बर किए जब तुम आ गए ऑफ़िस मुझे लेने!

©️निशा मिश्रा