“अफ़सोस की सिगड़ी पर…
आग सेंकते में?
फिर ये ख़याल नहीं आता…
की मोम-सा मन,
पत्थर होगा?
या पैना जैसे कटार,
किसको काटे?
या किस को छिले?
ये पता लगने से पहले चोट…
जो ख़ुद को पहले लगती है हर बार?
तब आता है वो ख़याल,
मन का फेर ही उलटा है,
मोम रहे?
तो पिघले औरों पर पहले,
पत्थर बने?
तो पहले चोट ख़ुद खाए,
और कटार?
तो जाने कितनी जानें ले जाएँ…
क्या हुआ?
सिगड़ी आज भी जलाए बैठे हो?”
©️निशा मिश्रा