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‘सिगड़ी’ (Cigar)

“अफ़सोस की सिगड़ी पर…
आग सेंकते में?
फिर ये ख़याल नहीं आता…
की मोम-सा मन,
पत्थर होगा?
या पैना जैसे कटार,
किसको काटे?
या किस को छिले?
ये पता लगने से पहले चोट…
जो ख़ुद को पहले लगती है हर बार?
तब आता है वो ख़याल,
मन का फेर ही उलटा है,
मोम रहे?
तो पिघले औरों पर पहले,
पत्थर बने?
तो पहले चोट ख़ुद खाए,
और कटार?
तो जाने कितनी जानें ले जाएँ…
क्या हुआ?
सिगड़ी आज भी जलाए बैठे हो?”
©️निशा मिश्रा
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Thoughts

“अधूरी सोच” (Incomplete Thought)

“कोशिश करते में जब थकान होती है,
मुड़कर ‘सोच अधूरी’ टटोल लेती हूँ,
कुछ चुप रहती हूँ, कभी बोल लेती हूँ,
अधूरी सोच,
उन काग़ज़ों सी…
जो बने तो हैं, मग़र स्याही से सने नहीं,
उन रंगों सी…
जो चढ़ गए ध्यान में, मग़र अब तक बने नहीं,
अधूरा ख्याल वो मेरा…
जो जी पर धाक जमाए बैठे है,
अधूरी खांच…
जो बिन बात ही एंठे है,
टटोल कर…
जोट देती हूँ फिर से एक नया तुक,
कभी मेल खाता है…
तो कभी रहता है बेतुक,
हर पन्ने पर रंग चढ़ाती हूँ,
रंग में सोच ही तो भुनाती हूँ,
जाने कितने जतन किए,
जाने कितने चाक हैं सिए,
कोशिशें तो अब भी जारी हैं,
आई अरसे बाद मेरी बारी है,
कोशिशें कई हारी, कुछ जीतीं,
अभी अनगिनत बाकी हैं… ”

© निशा मिश्रा ©