“पता है, क्या हुआ बीती रात?
सो नहीं पाई,
जी! नींद नहीं आई,
मन उड़ रहा था और ख़याल भी,
वो जो रोशनदान है न?
गई रात, छत से पूरे कमरे में चांदनी थी,
उफ्फ़-सी रह गई,
उठ कर बैठ गई,
रोशनी में खुद को बिखरा सा देखा,
समझे कुछ?
लगा जैसे,
कतरा कतरा फिसल कर बिखर गया है,
एक आवाज़-सी सुनाई पड़ी,
जैसे कोई बुला रहा हो,
फ़िर गौर करने की कोशिश की,
हाथ तकिये के नीचे खुद-ब-खुद बढ़े,
उठाकर देखा तो ख्वाब रखे थे,
कुछ चमकीले, कुछ रंग-बिरंगे,
सबको समेटा, देखा,
कुछ को देर तक सीने से लगाए रखा,
याद आया किस तरह माँ कहती थी,
“बेटा, तितली उड़ती है, इंसान नहीं!”
और मैं?
पता है मैंने क्या किया?
मैंने मन को ही तितली बनाया,
सतरंगी सपने संजोए,
तकिये के नीचे रखे ख्वाब और ख़याल सारे,
रोज़ देखती हूँ,
रोज़ टटोलती हूँ,
एक दो लफ्ज़ रोज़ घटते बढ़ते हैं,
निहारती हूँ, बड़ा सवारती हूँ,
आह भरकर, तकिये के नीचे दबाती हूँ,
हल्का सा मुस्का कर, सो जाती हूँ,
बस! हर रोज़ होता है यह,
और माँ से रोज़ यही कहती हूँ अब,
“माँ, मन उड़ता है, और कभी नहीं रूकता है!”
पता है माँ क्या करती है?
माँ बस मुस्का देती है… ”
© निशा मिश्रा