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‘मुलाक़ात’ (Meeting)

“कभी आओगे न तुम मिलने मुझसे?

तो ख़ाली हाथ ही आना,

कुछ काग़ज़ मैं लाऊँगी,

एक पेन….

तुम अपनी शर्ट-पाकेट में रख लाना,

मिलकर ढेरों बातें करेंगे,

हंसेंगे और थोड़ा घूमेंगे,

तुम बताना…

क़िस्से मुझे अपने आफिस के,

मैं भी तुम्हें…

कहानियाँ कुछ सुनाऊँगी,

शाम को अलविदा लेने से पहले…

मत भूलना तुम…

अपना पेन मेरे हवाले करना,

मैं याद रखूँगी वो मुलाक़ात,

काग़ज़ में लिखकर फिर…

पते पर तुम्हारे?

सब कुरियर कराऊँगी,

सुनो?

मिलने आओगे न तुम मुझसे?”

(ख़याल: मुलाकात)

© निशा मिश्रा

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poetry

‘सफ़र’ (Journey)

इक रोज़ जब हावी होने लगेगा धूप का साया,
मैं छांव को मंज़िल बना लूंगा,
चलूंगा बेहिसाब, हर रास्ते पर हंसी लिए होंठों पर,
आंखों के आंसुओं को कभी बहा लूंगा,
करूंगा सवाल मैं सबसे, मांगूगा जवाब भी,
पहेलियों को अड़चन लेकिन नहीं बनाउंगा,
स्याह न पड़े कहीं, खुदा बदनाम न हो,
ये दुआ है जिसे हर रोज़ बारहा दोहराउंगा,
एक घर की है चाहत, एक ख़याल है ईमानदार,
के शहर से दूर कहीं एक छोटी सी जगह लूंगा,
रखूंगा एक नाम उसका, जो घर मैं वहाँ बनाउंगा,
बन चुकने के बाद, निहारूंगा कुछ देर,
फ़िर अपने घर को सलीके से सजाउंगा,
उस घर में उड़ते परिंदों को जगह दूंगा,
खुदा को ढूंढने नहीं निकलूंगा कहीं,
खुदा के बंदों से मग़र हर रोज़ मिला करूंगा,
मज़हब? मैं मज़हब ज़िंदगी को बना लूंगा,
और इंसानियत पर फ़िर मज़हब भी लुटा दूंगा,
के ख़याल ये हक़ीक़त बने, यही है कोशिश,
मैं जिउंगा भी इसे, और कफ़न भी इसको बना लूंगा!”

‬© निशा मिश्रा

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Thoughts

“अधूरी सोच” (Incomplete Thought)

“कोशिश करते में जब थकान होती है,
मुड़कर ‘सोच अधूरी’ टटोल लेती हूँ,
कुछ चुप रहती हूँ, कभी बोल लेती हूँ,
अधूरी सोच,
उन काग़ज़ों सी…
जो बने तो हैं, मग़र स्याही से सने नहीं,
उन रंगों सी…
जो चढ़ गए ध्यान में, मग़र अब तक बने नहीं,
अधूरा ख्याल वो मेरा…
जो जी पर धाक जमाए बैठे है,
अधूरी खांच…
जो बिन बात ही एंठे है,
टटोल कर…
जोट देती हूँ फिर से एक नया तुक,
कभी मेल खाता है…
तो कभी रहता है बेतुक,
हर पन्ने पर रंग चढ़ाती हूँ,
रंग में सोच ही तो भुनाती हूँ,
जाने कितने जतन किए,
जाने कितने चाक हैं सिए,
कोशिशें तो अब भी जारी हैं,
आई अरसे बाद मेरी बारी है,
कोशिशें कई हारी, कुछ जीतीं,
अभी अनगिनत बाकी हैं… ”

© निशा मिश्रा ©

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Letters

वो गज़ल (That ode)

“भूलना, जताना, छुपाना भी,
मुहब्बत करना भी, न बताना भी,
कु से गुज़रते हुए याद आवे हर रोज़,
वो एक ही गज़ल रोज़ लिखना भी,
वो एक ही गज़ल रोज़ गाना भी,
राह तकना भी, भूल जाना भी,
भटकना भी, वापस आना भी,
मुड़कर पीछे न देखने की ज़िद भी रखना,
पांव के निशान रेतीली ज़मीन पर दागना भी,
कभी आवे तो फ़िर न जाने दूँ,
यही ख़याल जी में रखना भी,
यही ख्वाहिश रोज़ सवारना भी,
एक गज़ल वो, जो उसके नाम लिखनी है,
एक गज़ल वो, जो मेरे नाम ही नहीं…”

© निशा मिश्रा ©

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Peacock-Feather

लिखा है (Have written)

“किताब के एक पन्ने पर,
नाम वो तुम्हारा लिखा है,
और लिखा है बड़े प्यार से,
कोई तफ्तीश में ना लगे, लिखा क्यों कैसे?
यूँ करके किताब पास ही रखती हूं,
किताब और तुम्हें साथ ही रखती हूँ,
थोड़ा अदब से, थोड़ा दुलार से,
जी बड़े प्यार से,
आना कभी तो देखना, लिखा कैसे,
बताना भी फिर, चाहे लगे जैसे,
लिखाई कोई खास तो नहीं मेरी,
लिखती हूँ आढ़ा टेढ़ा,
मग़र नाम तुम्हारा लिखती हूँ प्यार से,
हर किताब,
हर काग़ज़ पर लिखा है नाम तुम्हारा,
हर रंग की स्याही में,
रचा है नाम तुम्हारा,
आओ कभी यहाँ,
तो ले जाना ये पन्ने,
ले जाना तुम्हारे नाम पर लिखीं ये कविताएँ भी,
आखिर तुम्हें ही तो बुलाया है,
हर बार,
तुम्हें, तुम्हारे नाम से,
और बेहद प्यार से।”

© निशा मिश्रा

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Feathers

मन (Heart)

“पता है, क्या हुआ बीती रात?
सो नहीं पाई,
जी! नींद नहीं आई,
मन उड़ रहा था और ख़याल भी,
वो जो रोशनदान है न?
गई रात, छत से पूरे कमरे में चांदनी थी,
उफ्फ़-सी रह गई,
उठ कर बैठ गई,
रोशनी में खुद को बिखरा सा देखा,
समझे कुछ?
लगा जैसे,
कतरा कतरा फिसल कर बिखर गया है,
एक आवाज़-सी सुनाई पड़ी,
जैसे कोई बुला रहा हो,
फ़िर गौर करने की कोशिश की,
हाथ तकिये के नीचे खुद-ब-खुद बढ़े,
उठाकर देखा तो ख्वाब रखे थे,
कुछ चमकीले, कुछ रंग-बिरंगे,
सबको समेटा, देखा,
कुछ को देर तक सीने से लगाए रखा,
याद आया किस तरह माँ कहती थी,
“बेटा, तितली उड़ती है, इंसान नहीं!”
और मैं?
पता है मैंने क्या किया?
मैंने मन को ही तितली बनाया,
सतरंगी सपने संजोए,
तकिये के नीचे रखे ख्वाब और ख़याल सारे,
रोज़ देखती हूँ,
रोज़ टटोलती हूँ,
एक दो लफ्ज़ रोज़ घटते बढ़ते हैं,
निहारती हूँ, बड़ा सवारती हूँ,
आह भरकर, तकिये के नीचे दबाती हूँ,
हल्का सा मुस्का कर, सो जाती हूँ,
बस! हर रोज़ होता है यह,
और माँ से रोज़ यही कहती हूँ अब,
“माँ, मन उड़ता है, और कभी नहीं रूकता है!”
पता है माँ क्या करती है?
माँ बस मुस्का देती है… ”

© निशा मिश्रा

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Feelings Thoughts

‘तफ्तीश’ (Enquiry)

“तफ्तीश में गुज़र गई वो शाम मेरी,
तफ्तीश में गुज़ार दिया अरसा भी,
ना वो आया, ना उसकी कोई खब़र,
बादल बिन मौसम गरज भी गया,
बादल बिन मौसम बरसा भी,
बरसात के पानी में भिगोकर रखें पांव देर तक,
रात में लिखा उसे काग़ज़ पर, याद किया सवेर तक,
रेत-सा वो सपना, छूट गया, टूट गया,
बेबाकी सा मिजाज़ उसका,
कभी बोल लिया, कभी रूठ गया,
चार ग़ाम की दूरी, मीलों में तब्दील हो गई,
उसको न ढूंढ सकी, खुद को भी खो गई,
हर बार सवाल उठाए गए मेरे जज़्बात पर,
माथा सिकोड़ा था उसने मेरी हर बात पर,
हाथ थामने को बढ़ी जब भी मैं उसकी तरफ़,
हँस दिया हर बार वो मेरे ही हालात पर,
याद आज भी आता है वो,
और परेशान ही हो जाती हूँ,
तफ्तीश में नहीं लगती,
लेकिन,
खुदमें बंध सी जाती हूँ,
चुप रह जाती हूँ,
और रो भी नहीं पाती हूँ…”

© निशा मिश्रा

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‘सपना उड़ान का’

“देखें दो जान सपना उड़ान का,
एक हाथ पकड़ने को बढ़े,
दूजा परे हो, दूर उड़ चले,
एक बिन बात लड़े,
दूजा ज़िद पर है अड़े,
दोनों की आंखें बड़ी बड़ी,
एक की कजरा लगी,
दूजे की ऐनक चढ़ी,
एक मुसका दे ज़रा सी बात पर,
दूजा मत्था सिकोड़े हर बात पर,
एक करे पूछताछ दिन रात,
दूजा चिढ़े हर वक़्त बिन बात,
चार आने जेब में नहीं,
सपने बुने हैं हज़ार,
हर बार, बार बार,
एक इस पार,
दूजा उस पार,
दो मन मासूम से,
एक चाह दोनों में भरी,
मन भर सुकून मिल जाए,
और भरपूर हो खुशी.. “

© निशा मिश्रा