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Storytelling Writeup

“Another Day”

‘I think there are more notebooks,

that I have kept track of,

in my house that I reside in,’never touched once after,

buying & bringing them home.

but I know this…

every inch of my body does,

every bit of my heart does,

that one fine day,

I’d turn to them,

broken in pieces,

inside my gut feelings,

deep inside my mind,

thinking,

‘God!

How could I just leave these like this?

How pretty these little things are!’

Smiling to myself,

then, writing my own name on one of them,

only to leave them all over again,

scattered across the house.

To live another day ahead,

and another one like that,

Someday again,

if not soon after!”

©Nisha

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‘मुलाक़ात’ (Meeting)

“कभी आओगे न तुम मिलने मुझसे?

तो ख़ाली हाथ ही आना,

कुछ काग़ज़ मैं लाऊँगी,

एक पेन….

तुम अपनी शर्ट-पाकेट में रख लाना,

मिलकर ढेरों बातें करेंगे,

हंसेंगे और थोड़ा घूमेंगे,

तुम बताना…

क़िस्से मुझे अपने आफिस के,

मैं भी तुम्हें…

कहानियाँ कुछ सुनाऊँगी,

शाम को अलविदा लेने से पहले…

मत भूलना तुम…

अपना पेन मेरे हवाले करना,

मैं याद रखूँगी वो मुलाक़ात,

काग़ज़ में लिखकर फिर…

पते पर तुम्हारे?

सब कुरियर कराऊँगी,

सुनो?

मिलने आओगे न तुम मुझसे?”

(ख़याल: मुलाकात)

© निशा मिश्रा

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poetry

अख़बार! (Newspaper)

“कभी अख़बार-सा ये बदन बन जाए,

तो सोचो क्या हो?

एक रात, कोई छापेगा कुछ इसपर,

सवेरे कोई फेंकेगा कहीं,

उठाकर चाय की चुस्की लेते हुए पढ़ेगा कोई,

तो कोई बिन पढ़े ही पंखा झलाएगा कहीं,

पुरानी होने पर कोई रोटियाँ बाँधेगा फाड़ कर,

कोई उठाकर शेल्फ़ पर बिठाएगा,

कोई कापियों पर कवर चढ़ाएगा,

कुछ रूपयों के लिए कबाड़ी को बेचा भी जाएगा,

कौडियों के दाम कहीं बिकेगा सही,

फटफटाकर कहीं बिसरा भी मिल जाएगा,

कभी अख़बार-सा ये बदन बन जाए,

तो बस…

यही होगा…

हज़ारों लोग…

बहुतेरी जगह,

ठिकाना न होगा कोई,

और न कोई वजूद,

घर पर अख़बार आता है न तुम्हारे?

क्या करते हो उसका?

बताना तो सही?”

#अख़बार

© निशा मिश्रा

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‘टुकड़ा काग़ज़ का’ (Piece of paper)

“हद हो गई है,
मन? मन के उड़ने की,
रास्ते? रास्तों के मुड़ने की,
सोच? सोचते में कुढ़ने की,
बड़ी हद हो गई है,
जो रंग समझ से परे थे कभी,
उन्हीं रंगों में रंग गई हूँ अब,
जिनके होने का कुछ पता नहीं था कभी,
वो दरवाज़े भी खुल गए हैं सब,
बहती हवा के साथ गया वो टुकड़ा काग़ज़ का,
वापस हाथ में आया बनकर कविता का पर्चा,
सच! हद हो गई है,
आज कैसे जाने तपती धूप बरस पड़ी,
आज बारिश के पानी में मैं नंगे पाँव ही चली,
कुछ छींटे कीचड़ की पजामे में लगी,
उँगलियाँ सभी मिट्टी में सनी,
सुध तो मानो खो दी हो कहीं,
जाने क्या हो गया था?
हद ही हो गई थी?
या कुछ खो गया था?
क्या हुआ था कुछ पता चला क्या?
वो टुकड़ा काग़ज़ का, किसी को मिला क्या?”

©निशा मिश्रा